जातिगत स्तर पर विभिन्नताएँ तथा विविधताएँ

परिचय:

भारतीय समाज में प्राचीन समय में वर्ण व्यवस्था समाज की रीढ़ थी । जाति का आधार मनुष्य का जन्म न होकर उसकी योग्यता तथा पेशा था । परन्तु कालान्तर में भारतीय समाज की वर्ण व्यवस्था में अनेक दोष आ गए और यह व्यवस्था भारत की उन्नति में एक भयानक बाधा बन गई। वर्तमान समय में जाति का आधार उसके जन्म तथा आनुवंशिकता बन गई। अब जिस व्यक्ति ने जिस विशेष जाति में जन्म लिया है इच्छा होने पर भी वह उसे बदल नहीं सकता। उसे उसी विशेष जाति के व्यावसायिक पेशे को अपनाना पड़ता है जिस जाति में उसने जन्म लिया हो । योग्यता होने पर भी वह दूसरी जाति की जीविका के साधन अर्थात् पेशे को नहीं अपना सकता । भारतीय समाज अनेक वर्गों में बँटा हुआ है। मोटे तौर पर अनुमान लगाने पर भारत में 5,000 से भी ऊपर जातियाँ, उपजातियाँ एवं वर्ग उभरकर सामने आए। वर्ग भाव बड़ा / भाईचारा कम हुआ । राष्ट्रीय एकता में कमी अनुभव हुई । मानवीय गुणों की अपेक्षा अन्य तत्वों पर जोर दिया जाने लगा। छुआछूत बड़ा/सामाजिक ऊँच-नीच की भावना प्रबल हुई । जाति-पाँति के भाव बड़े । जन्म न कि गुण देखा जाने लगा, ऊँच-नीच की भावना के कारण कुछ वर्गों को घृणा को दृष्टि से देखा जाने लगा ।

वर्ग विभाजन (Caste System):

  1. उच्च वर्ग—इसमें बहुत अमीर लोग, बड़े-बड़े व्यापारी, उद्योगपति, राजनीतिज्ञ तथा ऊँचे पदों पर स्थित सरकारी तथा गैर-सरकारी अधिकारी एवं बड़े जमींदार आदि आते हैं। यह वर्ग प्रायः उच्च आर्थिक लाभों का उपयोग करता है। साथ ही उच्च सामाजिक स्तर तथा राजनीतिक प्रभाव का भी लाभ उठाता है।
  2. मध्य वर्ग—इसको तीन भागों में बाँटा जा सकता है –
    • उच्च मध्य वर्ग-इस वर्ग में प्रायः मैनेजर, डॉक्टर, वकील इंजिनियर, प्राध्यापक, निजी कम्पनियों में कार्यरत ऊँचे अधिकारी, मिडिल वर्ग के व्यापारी आदि शामिल हैं। इस वर्ग के लोगों का रहन-सहन अधिकतर उच्च वर्ग के समान ही होता है।
    • मध्यम मध्य वर्ग – इस वर्ग में सरकारी कार्यालयों तथा अर्द्ध सरकारी कार्यालयों के अधीन आदि लोग आते हैं। छोटे व्यापारी या सामान्य स्तर के दुकानदार भी इस श्रेणी में हैं। यद्यपि इन लोगों के सीमित साधन होते हैं, परन्तु इच्छाएँ तथा आवश्यकताएँ उच्च वर्ग जैसी ही रखते हैं।
    • निम्न मध्य वर्ग—इस वर्ग के अन्तर्गत स्कूल अध्यापक, कार्यालयों में कार्यरत छोटे बाबू, छोटे दुकानदार, पुलिस में छोटे पदों वाले कर्मचारी तथा बहुत छोटे किसान आदि आ जाते हैं।

      निम्न वर्ग – इसमें अर्द्ध-कुशल श्रमिक, ठेले वाले, रेड्डी वाले, लोहार, बढ़ई, चतुर्थ श्रेणी के सरकारी कर्मचारी आदि लोग आते हैं। अनुमान के अनुसार भारत की कुल जनसंख्या का 50 प्रतिशत इसी वर्ग से लिया जाता है। गरीबी से नीचे वर्ग-लगभग 25 प्रतिशत भारतीय जनसंख्या इस वर्ग में आती है। प्रायः इन्हें जीवन की साधारण खाने-पीने की वस्तुएँ, रहने के लिए मकान तथा पहनने के वस्त्र अन्य वस्तुएँ वांछित मात्रा में उपलब्ध नहीं हो पाती हैं।

लैंगिक (GENDER)

समाजशास्त्र में लैंगिक शब्द का प्रयोग महिला और पुरुष की सामाजिक तथा सांस्कृतिक विशेषताओं को प्रकट करने के लिए किया जाता है। लैंगिक विभिन्नता हमें बच्चे के जन्म के समय से ही देखने को मिल जाती है। लड़के के जन्म पर जहाँ खुशी व्यक्त की जाती है वहीं लड़की के जन्म पर दुःख व्यक्त किया जाता है। लड़कों को बाहर निकलने तथा मजबूत बनने के लिए प्रेरित किया जाता है तथा लड़कियों से यह उपेक्षा की जाती है कि उन्हें शान्त स्वभाव तथा कोमल हृदय की होना चाहिए तथा उन्हें घर की चारदीवारी में रहने को विवश किया जाता है। ये सारे अन्तर लैंगिक विभिन्नता को व्यक्त करते हैं। एक महिला को जन्म से ही किसी न किसी के संरक्षण में रहना पड़ता है। विवाह से पहले वह अपने पिता के संरक्षण में, विवाह के बाद पति के संरक्षण में तथा वृद्धावस्था में पुत्र के संरक्षण में रहना होता है। इस प्रकार एक महिला कभी स्वतन्त्र नहीं रहती । एक महिला को तो आशीर्वाद भी इस प्रकार दिया जाता है कि तुम सौ पुत्रों की माता बनो तथा सदा सुहागन रहो आदि। इसमें कोई सन्देह नहीं कि संसार के हर क्षेत्र में महिलाएँ तथा लड़कियाँ संसाधनों, अवसरों तथा प्रशासनिक तथा राजनैतिक सत्ता पाने के समान अवसरों से वंचित हैं। यही स्थिति भारत में भी है। जबकि भारत में स्त्रियों को देवी माना गया है।

वेदों में नारी की शिक्षा, शील, गुण कर्तव्य और अधिकारों का विशद वर्णन है परन्तु फिर भी उन्हें उनके मूलभूत अधिकारों से अभी तक वंचित रखा गया है। विश्व की सभी संस्कृतियों में धर्मों, आय समूहों से सम्बन्धित समुदायों में नारी की दशा शोचनीय है । इनके खिलाफ सामाजिक एवं आर्थिक हिंसा जारी है।

लैंगिक विविधता व असमानता –

लैंगिक असमानता का अर्थ है नारियों के साथ पुरुषों के समान विभिन्न क्षेत्रों में एक जैसा बर्ताव न करना । उन्हें विभिन्न पदों पर नियुक्ति के लिए योग्य न समझना। उनको समान अवसर न देना। उन्हें समान कार्य के लिए वेतन आदि न देना। उन्हें एक प्रकार से भार समझना । पुत्र की उत्पत्ति में प्रसन्नता दिखाना आदि।

महिलाओं और पुरुषों में भेदभाव के प्रमुख इस प्रकार हैं-
  • लड़कियों के स्थान पर लड़कों को प्राथमिकता देना ।
  • महिलाओं तथा लड़कियों के लिए सीमित व्यक्तिगत तथा व्यावसायिक विकल्प ।
  • आधारभूत मानव अधिकारों से वंचित रखना ।
  • महिलाओं तथा लड़कियों से मारपीट ।
  • दहेज सम्बन्धी माँगें ।
  • कन्या भ्रूण हत्या, गर्भपात् आदि ।

किसी समाज में महिलाओं की आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक एवं शैक्षिक स्थिति इस समाज की वास्तविक स्थिति को प्रतिबिम्बित करती है। राजनीतिक एवं सामाजिक निर्णय-निर्माण की प्रक्रिया में महिलाओं की सहभागिता समाज में महिलाओं की स्थिति विकास का संकेतक माना जाता है। समाज की इस आधी आबादी की सामाजिक, आर्थिक व शैक्षिक दशा अत्यन्त शोचनीय है। पुरुषों के समान स्त्रियों की शिक्षा भी आवश्यक है, किन्तु अनेक देशों में लिंग के आधार पर असमानता पाई जाती है। बालिका को समाज में वह दर्जा नहीं मिलता जो बालकों को प्राप्त है। प्रत्येक दम्पत्ति की लालसा पुत्र प्राप्त करने की होती है। समाज के लोग जन्म के बाद बालक-बालिका में भेदभाव करते हैं। उनकी शिक्षा में भी विषमता दृष्टिगोचर होती है। पहली बात तो लड़कियों को कोई पढ़ाना ही नहीं चाहता और यदि स्कूल भेजते भी हैं तो बीच में ही उनकी पढ़ाई रोक दी जाती है।

यहाँ संक्षेप में लिंग असमानता के कुछ उदाहरण दिए जा रहे हैं।
  1. संसार में विकसित, प्रगतिशील तथा जनतांत्रिक देश अमेरिका में राष्ट्रपति पद कभी किसी नारी को प्राप्त नहीं हुआ । समानता का दावा करने वाले रूस में भी यही स्थिति रही है। यूरोप के लगभग सभी देशों में यही स्थिति रही है।
  2. अमरीका में महिलाओं को मताधिकार 1920 में, फ्रांस में, 1945 में, इटली में 1948 तथा स्विट्जरलैण्ड में 1973 में दिया गया ।
  3. संसार में प्रशासन, संसद तथा अन्य क्षेत्रों में महिलाएँ
    महिलाओं की भागीदारी (प्रतिशत)
    श्रेणी प्रतिशत
    संसद में महिलाएँ 17%
    महिला मंत्री 14%
    महिला शासनाध्यक्ष 6%
    संसार में नोबेल पुरस्कार विजेताओं का लिंगानुपात
    श्रेणी प्रतिशत
    नारियाँ 4.5%
    पुरुष 95.6%
    धार्मिक क्षेत्र में लैंगिक भेदभाव
    1. हिन्दुओं के सभी शंकराचार्य पुरुष हैं।
    2. ईसाईयों में पोप का स्थान पुरुषों के पास रहा है।
    3. मुसलमानों में प्रायः सभी धार्मिक नेता पुरुष हैं।
    4. अन्य धर्मों की लगभग यही स्थिति है।
    5. सभी धर्मों के प्रवर्तक पुरुष रहे हैं।

    हाशियाकरण (MARGINALISATION):

    हाशियाकरण से तात्पर्य समाज के उन वंचित वर्गों को शिक्षा की मुख्य धारा में लाना है जिन्हें समान अवसर प्राप्त नहीं हो रहे हैं। हमारे समाज में दलित उपेक्षित अर्थात् अनुसूचित जाति व जनजाति के वर्ग हाशिये पर खड़े हैं क्योंकि उन्हें समाज के उच्च व धनी वर्गों के समान अवसर प्राप्त नहीं हो पा रहे हैं। ये वे लोग हैं जो हिन्दू समाज से सम्बन्धित होने के बावजूद सदियों से भेदभावपूर्ण रवैये के कारण समाज की मुख्य धारा से अलग-थलग रह रहे हैं तथा इन्हें राज्य द्वारा उचित स्थान दिलाने हेतु विशेष प्रावधान व सहायता की जरूरत पड़ती है। अनुसूचित जाति को दलित या निम्न जाति के रूप में एवं कहीं-कहीं आदिवासी के रूप में भी जाना जाता है। संविधान के अनुच्छेद 338 तथा 338 (ए) के अन्तर्गत दो वैधानिक निकाय अनुसूचित जाति के लिए राष्ट्रीय आयोग तथा अनुसूचित जनजाति के लिए भी राष्ट्रीय आयोग के गठन का प्रावधान है। उल्लेखनीय बात यह है कि शोषण, अन्याय आदि के खिलाफ सुरक्षा प्रदान करने तथा सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक व सांस्कृतिक हितों से सम्बद्ध क्षेत्रों में इसे समुदाय के लोगों को प्रोत्साहन देने के लिए संविधान में कुछ विशेष प्रावधान की व्यवस्था की गयी है।

    संविधान में अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और कमजोर वर्गों के शैक्षिक और आर्थिक हितों को बढ़ावा देने और सामाजिक कमियों को दूर करने के लिए सुरक्षा और संरक्षण की व्यवस्था की गयी है तथा इन वर्गों को समाज की मुख्य धारा से जोड़ने के लिए अनेक प्रयास किये गये हैं एवं समानता हेतु भी कई प्रयास किये गये हैं, जैसे संवैधानिक प्रावधान; जिन्हें स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद लागू किया गया था।

    संवैधानिक सुरक्षाएँ (CONSTITUTIONAL PROTECTIONS):

    • अनुच्छेद 17 – छुआछूत दूर करना और किसी भी रूप में इस कुप्रथा पर प्रतिबन्ध लगाना।
    • अनुच्छेद 46 – उनके शैक्षिक और आर्थिक हितों को बढ़ावा देना तथा सामाजिक अन्याय और अन्य तरह के शोषण से उनकी सुरक्षा करना ।
    • अनुच्छेद 15 (2) — आम जनता हेतु कुओं, तालाबों, स्नानघरों, सड़कों तथा सार्वजनिक स्थलों के उपयोग के बारे में किसी भी प्रकार के प्रतिबन्ध, शर्त, अयोग्यता या दायित्व को हटाना ।
    • अनुच्छेद 25 (ख) – सार्वजनिक रूप से सभी हिन्दू मन्दिरों को सर्वजन के लिए खुला रखना।
    • अनुच्छेद 1 (5)—अनुसूचित जातियों के हितों की दृष्टि से सभी नागरिकों को स्वतन्त्रतापूर्वक आने- जाने, बसने और सम्पत्ति अर्जित करने के आम अधिकारों में कमी करने की कानूनी व्यवस्था करना ।
    • अनुच्छेद 29 (2) — राज्य द्वारा चलाई जा रही या राज्य निधि से सहायता प्राप्त करने वाले किसी भी शिक्षण संस्थान में प्रवेश पर किसी तरह का प्रतिबन्ध का निषेध ।
    • अनुच्छेद 330, 323, 324 – 25 जनवरी, 1990 तक लोकसभा और राज्य विधान सभाओं में अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए विशेष प्रतिनिधित्व की व्यवस्था करना।
    • अनुच्छेद 164, 338 व 5वीं अनुसूची- राज्य में अनुसूचित जनजातियों के कल्याण को बढ़ावा देने और उनके हितों की रक्षा करने के लिए जनजातीय सलाहकार परिषदों व अलग विभागों की स्थापना तथा केन्द्र में विशेष अधिकारियों की नियुक्ति ।
    • अनुच्छेद 224, 5वीं व 6वीं अनुसूची – अनुसूचित व जनजातीय इलाकों के प्रशासन व नियंत्र की विशेष व्यवस्था करना।
    • अनुच्छेद 23 मनुष्यों के व्यापार व जबरन मजदूरी पर रोक लगाना ।

    सरकारी प्रयास (GOVERNMENT EFFORTS)

    1. राष्ट्रीय अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति आयोग के अधिकारों में वृद्धि ।
    2. संसद व विधान सभाओं में इनके लिए सीटों का आरक्षण कर दिया गया है।
    3. अनुसूचित जातियों व जनजातियों के लोगों को सेवाओं में छूट, जैसे- (1) आयु-सीमा में छूट, (2) उपयुक्तता सम्बन्धी मानकों में छूट, (3) सीधी भर्ती वाले पदों में अनुभव सम्बन्धी योग्यता में छटा
    4. संविधान में अनुसूचित इलाकों के प्रशासन की वार्षिक रिपोर्ट राज्यपालों द्वारा राष्ट्रपति को प्रेषित करने की व्यवस्था ।
    5. असम, मेघालय व मिजोरम के जनजातीय इलाकों के प्रशासन के लिए स्वायत्तशासी जिल परिषदों की स्थापना ।
    6. राज्यों में इस वर्ग के कल्याण के लिए अलग विभागों की स्थापना ।
    7. अनुसूचित क्षेत्रों वाले राज्यों में जनजातीय सलाहकार परिषदों का गठन।
    8. स्वयंसेवी संगठनों को सरकार द्वारा अनुदान की व्यवस्था ।
    9. केन्द्रीय कल्याण मन्त्रालय को इस वर्ग के मामलों का समन्वयक नियुक्त करना।

Blog By:-

Ms. Hemlata Mishra

Associate Professor

Biyani Girls B.Ed. College

Sustainable Development: A Distant Dream for the Poor

Introduction Sustainable development is not a new concept—it has existed since time immemorial. But somewhere along the way, we forgot sustainability and blindly followed development. Whenever we hear the phrase