सांस्कृतिक विडम्बना: संस्कृति का मुखौटा

परिचय:

संस्कृति से आशय मानव द्वारा निर्मित समस्त प्रकार के भौतिक एवं आध्यात्मिक या अभौतिक तत्त्वों से है। Lag का हिन्दी अर्थ ‘लंगड़ाना’ या ‘विडम्बना’ होता है। जिसका अर्थ है ‘पीछे रह जाना’ है। अतः जब संस्कृति के भौतिक पक्ष की तुलना में अभौतिक पक्ष पिछड जाता है, तो सम्पूर्ण संस्कृति में असन्तुलन की स्थिति को साँस्कृतिक पिछड़ापन अथवा सांस्कृतिक विडम्बना कहते हैं। यही सांस्कृतिक विलम्बन सामाजिक परिवर्तनका का आधार है। इसी असंतुलन की स्थिति को “सांस्कृतिक विलम्बन” या “सांस्कृतिक पिछड़ापन” कहते हैं | संस्कृति में पूर्णता तथा ज्ञान की खोज का समावेश होता है । संस्कृति में उस समाज की परम्पराओं,रीति-रिवाजों, सामाजिक व्यवहारों, लोकाचारों, आदर्शों, मूल्यों आदि सभी पक्षों को शामिल किया जाता है। “संस्कृति वह जटिल समय है जिसमें समाज के सदस्य के रूप में मानव द्वारा अर्जित ज्ञान, विश्वास, कला, नैतिकता, कानून, प्रथाओं तथा अन्य क्षमताएँ तथा आदतें शामिल हैं।” इस प्रकार संस्कृति में भौतिक एवं आध्यात्मिक दोनों पक्ष सम्मिलित होते हैं और इन दोनों में संतुलन बना रहना आवश्यक ही नहीं अपितु अनिवार्य भी है।

सांस्कृतिक विलम्बन क्या है?

प्रत्येक समाज की संस्कृति के मूल रूप से दो पक्ष होते हैं, जिन्हें आध्यात्मिक तथा भौतक पक्ष के नाम से जाना जाता है। यदि संस्कृति के इन दोनों पक्षों में असंतुलन की यह स्थिति किसी एक पक्ष के अधिक विकसित होने और दूसरे पक्ष के अपेक्षित से कम होने से उत्पन्न होती है। फलतः समाज का संतुलित विकास नहीं हो पाता है। एक पक्ष अधिक विकसित हो जाता है और दूसरा पक्ष कमजोर रह जाता है। इस प्रकार जब किसी समाज की आध्यात्मिक एवं भौतिक संस्कृति के विकास में असंतुलन की स्थिति पैदा हो जाती है, तो इसे सांस्कृतिक विलम्बन कहते हैं।

ऑगबर्न का सांस्कृतिक विलम्बन सिद्धांत

ऑगबर्न के अनुसार, “सांस्कृतिक विलम्बन का अर्थ यह है कि संस्कृति के एक भाग का परिवर्तन दूसरे की अपेक्षा अधिक शीघ्रता से होता है और सदैव ऐसा ही घटित होता रहता है। परिणामस्वरूप दो भागों की संधि भंग हो जाती है।” अतः जब समाज में नवीन उत्पन्न कारकों की वजह से नवीनता एवं प्राचीनता का सामंजस्य स्थापित करने में लम्बा समय लग जाता है, तो सांस्कृतिक विलम्बन हो जाता है।सांस्कृतिक विलम्बन सामाजिक परिवर्तन का परिणाम है। सामाजिक संतुलन बिगड़ने के कारण समाज को अनेक समस्याओं और कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। फलतः समाज की प्रगति अवरुद्ध हो जाती है। संस्कृति के भौतिक एवं आध्यात्मिक पक्ष गाड़ी के दो पहिए हैं। दोनों पहियों की समान स्थिति होने पर ही गाड़ी अपनी मंजिल पर पहुँच पाती है। यदि गाड़ी के एक पहिए की स्थिति दूसरे से किसी भी प्रकार मेल न खाती हो, तो चालक को अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है और वह गंतव्य स्थान पर समय पर नहीं पहुँचने पाता है। ठीक यही स्थिति संस्कृति की है। भौतिक एवं आध्यात्मिक पक्ष में संतुलन होने पर समाज का सही रूप से विकास हो पाता है अन्यथा असंतुलन की स्थिति में सामाजिक विकास अवरुद्ध हो जाता है।

शिक्षा एवं सांस्कृतिक विलम्बन (Education and Cultural Lag)

सांस्कृतिक विलम्बन अवश्यंभावी है किन्तु शिक्षा द्वारा इसे नियन्त्रित किया जा सकता है। कुछ विचारणीय बिन्दु निम्नलिखित हैं-
  1. यह शिक्षा की व्यवस्था एक समग्रता के रूप में की जाए तो संस्कृति के दो पक्षों का विकास भी साथ-साथ हो सकता है।
  2. वर्तमान समय में वैज्ञानिक चिन्तन व्यक्ति के व्यवहार का आधार होना चाहिए। अतएव प्राचीन एवं नवीन मूल्यों के मध्य समन्वय स्थापित करने के लिए वैज्ञानिक चिन्तन को विकसित करना चाहिए जिससे व्यक्ति सन्तुलन स्थापित रख सके, तथा दो संस्कृतियों के मध्य टकराव की स्थिति उत्पन्न न होने पाए।
  3. पाठ्येतर-क्रियाओं के आयोजन से भी भौतिक एवं अभौतिक संस्कृति के मध्य सन्तुलन लाने के लिए वैचारिक धरातल प्रदान किया जा सकता है।
  4. सांस्कृतिक विलम्बन की स्थिति को समय पर नियंत्रित करने की दिशा में शिक्षक की सक्रिय भूमिका होती है, वह स्वयं के दायित्व को समझे तथा राष्ट्र, समाज के प्रति अपनी जवाबदेही (Accountability) को अनुभव करे, तो केवल सूचना प्रदान करने के कार्य से आगे बढ़कर वह सामाजिक परिवर्तन का सक्रिय वाहन भी बन सकता है।
  5. वांछित दिशा में नियोजित परिवर्तन को दिशा प्रदान करके भी शिक्षक सांस्कृतिक विलम्बन को नियंत्रित कर सकता है।

सांस्कृतिक विलम्बन के परिणाम

  • सामाजिक प्रगति में अवरोध।
  • परम्परा और आधुनिकता के बीच टकराव।
  • समाज में असंतुलन और समस्याएँ उत्पन्न होना।

शिक्षा और सांस्कृतिक विलम्बन (Education and Cultural Lag):

सांस्कृतिक विलम्बन को नियंत्रित करने में शिक्षा की अहम भूमिका है।

शिक्षा की भूमिका

  1. शिक्षा द्वारा संस्कृति के दोनों पक्षों का समानांतर विकास संभव है।
  2. वैज्ञानिक चिंतन विकसित कर संतुलन स्थापित किया जा सकता है।
  3. पाठ्येतर गतिविधियों से सांस्कृतिक संतुलन बनाया जा सकता है।
  4. शिक्षक सामाजिक परिवर्तन का सक्रिय वाहक बन सकता है।
  5. नियोजित और वांछित परिवर्तन शिक्षा से संभव है।

निष्कर्ष

संस्कृति का एक पक्ष चाहे वह भौतिक है अथवा अभौतिक अधूरा है, असंतुलित है। गहन चिन्तन के पश्चात् यही निष्कर्ष निकलता है कि हमारा भौतिक पक्ष अति तीव्र गति से बढ़ चुका है और अभौतिक या आध्यात्मिक पक्ष पिछड़ गया है। दोनों पक्षों का असंतुलन सांस्कृतिक विलम्बन है। प्रश्न उठता है, संतुलन का कार्य कौन करे? संतुलन के इस कार्य को शिक्षा द्वारा पूर्ण किया जाता है। शिक्षा के उद्देश्यों में समाज की वर्तमान आवश्यकतानुसार परिवर्तन किए जाते हैं और शिक्षा पिछड़े हुए क्षेत्र को आगे बढ़ाने का प्रयास करती हैं और सांस्कृतिक विडम्बना को समाप्त करती हैं |
संस्कृति मनुष्य को जोड़ती है और विडम्बना मनुष्य को बाँटती है।

Blog By:-

Dr. Tripty Saini

Assistant Professor

Biyani Girls B.Ed. College

Sustainable Development: A Distant Dream for the Poor

Introduction Sustainable development is not a new concept—it has existed since time immemorial. But somewhere along the way, we forgot sustainability and blindly followed development. Whenever we hear the phrase