भारतीय ज्ञान परंपरा (IKS) के संदर्भ में जैन दर्शन और शिक्षा

भारत की ज्ञान परंपरा सदियों से केवल बौद्धिक विकास तक सीमित नहीं रही, बल्कि उसने मानव के चरित्र, जीवन-मूल्य और आत्मिक उत्थान पर भी बल दिया। इसी क्रम में जैन दर्शन एक ऐसा तत्त्वज्ञान है, जो जीवन के हर आयाम को संतुलित और नैतिक दृष्टि प्रदान करता है। आधुनिक शिक्षा में जब IKS (Indian Knowledge System) को शामिल करने की बात होती है, तब जैन दर्शन का योगदान विशेष रूप से महत्वपूर्ण बन जाता है।

जैन धर्म में पाँच महान व्रत:

अहिंसा (अहिंसा परमो धर्मः) – किसी भी जीव को कष्ट न देना।

सत्य – सत्य भाषण और सत्य आचरण।

अस्तेय – चोरी या छल से परहेज़।

ब्रह्मचर्य – संयम और आत्म-नियंत्रण।

अपरिग्रह – भोग-विलास और अधिक संग्रह से दूर रहना।

ये सिद्धांत केवल धार्मिक अनुशासन नहीं बल्कि जीवन प्रबंधन के सूत्र हैं। वर्तमान में IKS (Indian Knowledge System) का उद्देश्य है  भारत की प्राचीन ज्ञान परंपराओं को आधुनिक शिक्षा प्रणाली से जोड़ना। इसमें जैन दर्शन की भूमिका महत्वपूर्ण है

जैन ग्रन्थों विशेषतः आगमों के अनुसार शिक्षा का उद्देश्य व्यक्ति का सर्वांगीण विकास करना है ताकि वह आध्यात्मिक विकास के द्वारा मोक्ष की प्राप्ति कर सके। तत्वार्थ सूत्र के अनुसार आत्मोत्कर्ष के लिए जीवाजीव तत्त्वों का ज्ञान प्राप्त करना और आत्म कल्याण की ओर प्रवृत्त होना ही शिक्षा है। जैन साहित्य एवं दर्शन का शिक्षा के क्षेत्र में बड़ा योगदान रहा है, इसके अनुसार शिक्षा के अधोलिखित उद्देश्य हैं-

  1. जीओ और जीने दो की भावना का विकास –भगवान पार्श्वनाथ एवं महावीर दोनों ने ही कर्म प्रधान विश्व करि राखा। जो जस करहि सो तिहिं फल चाखा ॥ अतः बालक में कर्म की प्रधानता जागृत करना शिक्षा का उद्देश्य होना चाहिए ताकि वह पाप कर्म से बच सके और सुकर्म करने की ओर प्रेरित हो सके।
  2. नैतिकता के विकास पर बल :जैन दर्शन के अनुसार शिक्षा के माध्यम से बालक को उच्च नैतिकता के विकास की शिक्षा देनी चाहिए। भगवान महावीर ने गृहस्थ को पंच महाव्रत अहिंसा, अस्तेय, सत्य, अपरिग्रह एवं ब्रह्मचर्य के पालन पर जोर दिया। पंच महाव्रत के साथ-साथ सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चरित्र अर्थात् त्रिरत्न पालन की भी शिक्षा दी। पंच महाव्रत एवं त्रिरत्न के पालन से व्यक्ति का उच्च नैतिक विकास सम्भव है। मोक्ष शास्त्र नामक ग्रन्थ में तो प्रारम्भ में ही बतलाया गया है-सम्यक्दर्शनज्ञानचरित्राणिमोक्ष मार्ग अर्थात् सम्यक् दर्शन, सम्यक ज्ञान और सम्यक् चरित्र ही मोक्ष का मार्ग अर्थात् यस्ता है। अतः जैन दर्शन व्रत, तप और योग के माध्यम से उच्च नैतिकता के विकास की शिक्षा देता है।
  3. जीवन में कर्म की प्रधानता पर बल देना जैन दर्शन ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास नहीं करता है। ईश्वर संसार का कर्ता नहीं है। जीव अपने कर्म के अनुसार कत्र्ता एवं भोक्ता दोनों ही है। अतः जैन दर्शन सत् कर्म करने की प्रेरणा देता है। सुकर्मों के माध्यम से ही जीव जन्म-जरा-मृत्यु के दुःखों से छुटकारा प्राप्त कर सकता है तथा आवागमन के बन्धन से मुक्ति प्राप्त कर सकता है। कर्मफल जीव को अवश्य ही भोगना पड़ता है और कर्मानुसार ही उसकी गति होती है। जैसा कि एक कवि ने लिखा है-
  4. करनी करे तो क्यों डरे, क्यों करके पछिताए। बोये पेड़ बबूल के, तो आम कहाँ से खाए ॥ अर्थात् यह जीव जैसा करेगा, वैसा ही फल उसे प्राप्त होगा। कर्म प्रधान विश्व करि राखा। जो जस करहि सो तिहिं फल चाखा ॥
    अतः बालक में कर्म की प्रधानता जागृत करना शिक्षा का उद्देश्य होना चाहिए ताकि वह पाप कर्म से बच सके और सुकर्म करने की ओर प्रेरित हो सके।
  5. कठोर जीवनयापन पर बल-जैन दर्शन के अनुसार शिक्षा का उद्देश्य कठोर जीवनयापन की शिक्षा देना है। जैन दर्शन मोक्ष प्राप्ति& शिक्षा का मुख्य उद्देश्य बतलाता है। मोक्ष की प्राप्ति कठिन तप, व्रत, उपवास एवं संयमित जीवनयापन से ही सम्भव है। मोक्ष का शाब्दिक अर्थ है- मुक्त अर्थात् बन्धन हीन। यह जीवन बन्धन हीन तभी हो सकता है जब इसे भूख, प्यास, निद्रा, मैथुन, भय आदि न सताएँ। इनसे छुटकारा कठोर, नियमित एवं संयमित जीवन-निर्वाह द्वारा ही सम्भव है। अतः बालक को कठोर जीवनयापन की शिक्षा देना ही जैन दर्शन का उद्देश्य है।
  6. व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास-जैन दर्शन के अनुसार व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास शिक्षा का उद्देश्य है। व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास ज्ञान द्वारा ही सम्भव है। ज्ञान के द्वारा ही सत्-असत्, आत्मा अन्तरात्मा का अन्तर पहचाना जा सकता है। सच्चा एवं सात्विक ज्ञान हो सम्यक् ज्ञान है। सम्यक् ज्ञान के द्वारा ही दूध का दूध और पानी का पानी स्पष्टतः दिखलाई देता है। सम्यक् ज्ञान व्यक्तित्व का एकांगीय विकास है, व्यक्तित्व का समग्र विकास सम्यक् दर्शन, संम्यक् ज्ञान और सम्यक् चरित्र तीनों के समान रूप में विकसित होने पर ही सम्भव है। अतः बालक के सर्वांगीण विकास हेतु त्रिरत्न के माध्यम से बालक की अन्तः निहित क्षमताओं एवं शक्तियों का विकास करना चाहिए ताकि बालक के व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास हो सके। अर्थात् बालक स्वहित के साथ- साथ परहित व समष्टि हित की ओर जागरूक हो। समष्टि हित की भावना जागृत होने के पश्चात् ही व्यक्ति अपने पराए का भेद भूल जाता है और उसके व्यक्तित्व का पूर्ण विकसित रूप सामने आ जाता है।

Blog By:-

Dr.Aart Gupta

Professor

Biyani Girls B.Ed. College

Sustainable Development: A Distant Dream for the Poor

Introduction Sustainable development is not a new concept—it has existed since time immemorial. But somewhere along the way, we forgot sustainability and blindly followed development. Whenever we hear the phrase